हरि-रस ईसरा-परमेसरा
किताइक वार विसै कलपंत, बाँधी तैं सींग प्रिथी बळवंत।
हलाविय केतिक वार हमल्ल,मथ्यौ महरांण स हेकण मल्ल ।।25।।
हे ईश्वर ! कितनी ही बार मत्स्यावतार धारण करके कल्पों के अन्त में पृथ्वी को अपने (मत्स्य) श्रृंग द्वारा बांध कर उसकी रक्षा की। कितनी ही बार सेनायें चढाकर ओर कितनी ही बार अकेले ही आपने समुद्र का मन्थन किया ।
--प्रस्तुति सवाई सिंह महिया
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